नागरिकता संशोधन अधिनियम के संसद से पारित होने के बाद देश भर में बहुत विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं। इसमें चौंकने वाली कोई बात नहीं है और इसका स्वागत होना चाहिए। एक जीवंत लोकतंत्र में सरकार के किसी भी विवादित कदम के विरुद्ध अहिंसक विरोध को सही रूप में देखना चाहिए। भारत में विशेष रूप से मतभेद और विरोध की सदियों पुरानी राजनीतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक परंपरा रही है। ऐसे विरोध-प्रदर्शनों के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया के दो रूप हैं- पहला, सीआरपीसी के तहत अनेक राज्यों में भाग 1AA लाग करना और दसरा अनेक इलाकों में इंटरनेट सेवा निलंबित करना। धारा 144 की जडें औपनिवेशिक काल में हैं। धारा 144 कार्यकारी मजिस्ट्रेट (अक्सर पुलिस के प्रतिनिधि) को निषेधात्मक आदेश पारित करने के लिए अधिकृत करती है। यह धारा एक जगह पर चार से अधिक लोगों के एकत्र होने या उनकी सभा को प्रतिबंधित करती है। इसके पीछे तर्क यह है कि रोककर सार्वजनिक व्यवस्था के उल्लंघन या हिंसा भड़कने से रोका जा सकता है। अगर कोई ऐसी भीड़ एकत्र हो रही हो, जो हिंसा करने या आग लगाने का स्वती टो गा लोगों को टमके लिए भड़काने का इरादा रखती हो, तब धारा 144 का अर्थ है। धारा 144 को ऐसे अस्पष्ट ढंग से बनाया गया है कि इसमें फैसला अधिकारियों के विवेक पर छोड दिया गया है। आज के समय में यह हिंसा के खिलाफ ढाल नहीं, बल्कि सार्वजनिक प्रदर्शन और विरोध के माध्यम से असंतोष की अभिव्यक्ति रोकने के लिए एक तलवार है। धारा 144 के उपयोग से कौन-से कानूनी मानक संचालित होते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने भी स्पष्ट किया है। उसने सांविधानिक अधिकारों पर प्रतिबंध को केवल तभी स्वीकार्य माना है, जब हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था के साथ प्रत्यक्ष या निकट संबंध हो। दूसरे शब्दों में, अगर हिंसा या दंगे के लिए उकसाने का स्पष्ट मामला है, तो राज्य प्रतिबंधात्मक कार्रवाई कर सकता है। केवल इस आशंका के आधार पर वह ऐसी कार्रवाई नहीं कर सकता कि विरोध के कारण सार्वजनिक अव्यवस्था हो सकती है। यह सुनिश्चित करना राज्य का काम है कि पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था की जाए, ताकि विरोध-प्रदर्शनों को अहिंसक तरीके चलाया जा सके। हालांकि व्यवहार में इस उच्च मानक का पालन कभी नहीं किया जाता। यह पिछले कुछ दिनों में धारा 144 के व्यापक उपयोग से स्पष्ट है। मिसाल के लिए परे बेंगलरु शहर में धारा 144 लगाई गई। अर्थात 86 लाख लोगों को इसके दायरे में ले गला में हिंसा के भय का संकेत भी नहीं था। बेंगलुरु पुलिस ने धारा 144 के आदेश को सही ठहराने के लिए देश के अन्य हिस्सों में अव्यवस्था और संभावित असुविधा का ताला दिया। हालांकि टन तर्कों में से कुछ भी हमारे संविधान के तहत स्वीकार्य नहीं हैं। देश के अन्य हिस्सों में समस्या और भी विकट है। मिसाल के लिए परे उत्तर प्रदेश में धारा 144 लगा दी गई तो 20 करोड लोगों ने विरोध करने के अपने अधिकार गंवा दिए। यह एक बेहद परेशान करने वाली प्रवृत्ति है। इस प्रकार शहरव्यापी और राज्यव्यापी स्तर पर धारा 144 का आदेश हमारे मालिक आधकारा का थाक मानलबन स ज्यादा कुछ नहीं हैं। ऐसा केवल आपातकाल के समय देखा जाता है। इस बार धारा 144 क साथ-साथ इटरनेट पाबंदी के आदेश भी खूब दिए गए हैं। आपानवाशक युग क भारताय टलाग्राफ अधिनियम के तहत इंटरनेट को निलंबित करन का प्रक्रिया अपना प्रकृति में पूरा तरह नौकरशाहा है आर वह भा बिना किसी ठोस दृष्टिकोण क। यह आश्चर्यजनक है कि भारत इंटरनेट सेवा के निलंबन में चीन, पाकिस्तान, ईरान, चाड और मिस्र जैसे देशों से आगे है। अनुराधाना म यह स्पष्ट हो चुका है कि इटरनेट सेवा के निलबन और हिंसा के बाच वास्तव में सबध नहीं है, असली स्थिति इसके विपरीत है। लिहाजा हाल के दिनों में धारा 144 और इंटरनेट बंद होने से लोकतंत्र संकुचित हुआ हैं। कश्मीर में भा लबे समय से इटरनेट बद है, इस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला जनवरी में अपेक्षित है। शायद अदालत हा हमारे मूल्यवान मौलिक अधिकारों का बहाल करने का दिशा में कारगर हो।
अधिकारों पर अंकुश लगाने का बढ़ता चलन